१४.) वैराग्य आ जाने के बाद क्या कोई इच्छा नहीं उठती?

वैराग्य का अर्थ यह नहीं है कि चित्त में सुख दुख आना बंद हो जाये या चित्त वृत्तियां रूक जायें। राग मतलब जो भी संसार में हो रहा है उसमें लीन या आसक्त होना। जब उसमें कोई रुचि या आसक्ति नहीं रहे, तो वही वैराग्य है।


वैराग्य की स्थिति ऊपरी परतों में होती है, बाकी की निचली परतों में वृत्तियां चलती रहती हैं, पर उनसे विरक्ति हो जाती है। यदि राग है तो वो व्यक्ति इच्छा आते ही तुरंत उसको पूरा करने के लिए काम में लग जायेगा। क्योंकि उसको यह अज्ञान है कि इससे सुख मिलेगा।

वैरागी थोड़ी देर सोचता है कि यह इच्छा मेरी तो है नहीं, पता नहीं इसका फल भी क्या आयेगा वो भी मेरे हाथ में नहीं है, यह फल तो मैं पहले भी बहुत बार चख चुका हूँ आज जाने दो, थोड़ा विलम्ब कर सकते हैं आदि, यह है वैराग्य।

वैराग्य एक तरह का आचरण है जो इस भावना से आता है कि संसार अर्थहीन है, शरीर से आसक्ति बंधन है, चित्त माया है, इससे ममता अर्थहीन है आदि। जब आत्मज्ञान होता है तो वैराग्य अपने आप ही आ जाता है।

ज्ञानी के चित्त में भी वृत्तियां वैसे ही उठती हैं जैसे अज्ञानी के चित्त में उठती हैं, बस ज्ञानी के चित्त में सभी वृत्तियां प्रकाशित होती हैं, और यह वैराग्य और ज्ञान के कारण होता है। कभी कभी अज्ञान होगा तो थोड़ा प्रभावित होता भी है, लेकिन जल्दी ही फिर चेतना आ जाती है कि यह वासना उस संस्कार की वजह से आयी है, यह तो होता ही रहता है आदि।

यह होना स्वाभाविक है। यदि शाब्दिक ज्ञान है तो उतना बदलाव नहीं आयेगा। अज्ञानी जो भी अंदर चल रहा है उसको 'मैं' मान लेता है तो फिर कुछ सही दिखाई नहीं देगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

List of Questions asked in Path of knowledge program - Part 5

How to describe the oneness? When to read the books? Why does emptiness look empty? What is atma? Who should do the experiments and purifica...