वासनायें कारण शरीर को चलाती हैं, और जीव इनको भौतिक शरीर के द्वारा प्राप्त अनुभवों से पूरा करना चाहता है। मनुष्य कारण शरीर में जो ज्ञान पहले से ही संग्रहित है, उसका उपयोग नहीं करता है, और समाज से जनित नई इच्छायें इकठ्ठी करता रहता है।
बीज शरीर में अनंत सम्भावनायें हैं, पर वह रेगिस्तान में तो फलित नहीं होगा। इसलिये सारा जीवन तुच्छ इच्छाओं को पूरा करने में बीत जाता है। यह जाति कर्म हैं।
कारण शरीर काल को भी आगे पीछे कर सकता है, वह काल बना सकता है जहां उसकी अभिव्यक्ति सबसे अच्छी होने की सम्भावना है। देश और काल दोनों चित्त निर्मित हैं। पर कारण शरीर को भी मैं ना मान लें, मैं वह भी नहीं हूँ। कारण शरीर जब एक भौतिक शरीर से जुड़ जाता है तो उसकी अधिकतर योग्यतायें लूप्तप्राय या छुप जाती हैं। प्राकृतिक मृत्यु से उसकी योग्यतायें वापस आ जाती हैं, यानि वह भगवान या विश्वचित्त में लीन हो गया है।
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