लघु उत्तरीय प्रश्न

१.) क्या किताबें पढ़ने से ज्ञान हो सकता है?  
किताब पढ़ने से ज्ञान नहीं मिलता, गुरु के पास बैठकर, प्रयोग करने से और गुरु कृपा से अज्ञान का नाश होता है। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता है, तब पुस्तक पढ़ने से केवल अज्ञान ही होता है। जीवन तो छोटा सा है, किताबें पढ़ने में बिताना है या ज्ञान में बिताना है। अपनी गीता स्वयं लिखें।

२.) माया और मुझमें कितनी दूरी है? 
शून्य है। जो प्रकट है, और जिसमें प्रकट होता है उसमें कुछ दूरी नहीं है, ना समय की ना ही स्थान की। दूरी केवल प्रतीत होती है, वास्तव में है नहीं।

३.) समर्पण का क्या अर्थ है?  
समर्पण का अर्थ हार मानना नहीं है, उसका अर्थ स्वीकार भाव में आना है और जो गलती सुधारने के लिए आवश्यक है वो करना चाहिए। समर्पण का अर्थ क्रियाहीनता नहीं है, बल्कि क्रियाशीलता है, सही कर्म होना चाहिए।

४.) प्राकृतिक आपदाओं से कई लोगों के मरने का क्या कारण है? 

आपदाओं में कुछ भी सत्य नहीं है, न लोग मर रहे हैं, ना बाढ़ है, ना बीमारी है। यदि आप इसको सत्य मान रहे हैं या चिंतित हैं, तो कुछ अज्ञान रह गया है जो वापस आ रहा है। इसलिये साधना जारी रखें। यह घटनायें प्राकृतिक हैं। इस तरह का उत्तर आम व्यक्ति समझ नहीं सकता है।


५ .) विश्वचित्त की मूल अवस्था क्या है? 
विश्वचित्त की मूल अवस्था सुषुप्ति की है, अन्य अवस्थायें उसमें बुलबुलों की तरह उठती रहती और विलय हो जाती हैं। कोई भी अवस्था हो, स्वप्नों की अनंत शृंखला है, और मैं हूँ, यह ज्ञान का अन्त है। 

६.) कर्म और क्रिया में क्या अंतर है? 
'कर्म' स्मृति को ही कहते हैं और 'क्रिया' प्रक्रिया है जो स्मृति में बदलाव लाती है। देवी, नाद, स्मृति आदि दिखाई नहीं देती है, वो क्रिया के रुप में प्रकट होती है।  

७.) बुद्धि की क्या सीमा है ?
बुद्धि केवल माया को जान सकती है, बुद्धि सत्य को नहीं जान सकती है, और बुद्धि की यही सीमा है। बुद्धि का उपयोग बुद्धि का नाश करने के लिए किया जाता है। बुद्धि के द्वारा जो भी जाना जा रहा है वह सब अज्ञान ही है। 

८.)  क्या व्यक्ति में दूसरों से पूर्णतया पृथक, उसका व्यक्तिगत कोई गुण हो सकता है?  
केवल अहंकार व्यक्तिगत है, बाकी सभी वैश्विक या विश्वचित्त की वृत्ति चल रही है, जैसे विचार, शरीर, बुद्धि, भावनायें आदि। जैसे शरीर वातावरण का भाग है, कोशिकाओं का समूह है, तो व्यक्तिगत कहां रहा?
 
९ .) सहज समाधि क्या है? 
अनुभवकर्ता, अनुभव का कारण नहीं है, दोनों एक ही हैं। चित्तवृत्ति भेद उत्पन्न करती है और जब चित्तवृत्ति का अन्त होता है तो अनुभवक्रिया रह जाती है, जिसमें कोई भेद नहीं है। और यही सहज समाधि है, इसको समझना या इसमें जाना बहुत सरल है। 

१०.) समावेशी ध्यान क्या है? इसका चेतना से क्या सम्बन्ध है?
चित्तवृत्ति को भी मिला लें ध्यान में तो वही समावेशी ध्यान है। यदि चित्तवृत्ति 'मैं' पर स्थित है तो द्वैत ही सत्य प्रतीत होता रहेगा। जब 'मैं' की स्थिति आत्मन पर होती है तो वही चेतना है। अनुभव और ज्ञान के उपयोग से इतना जान लेना की चित्तवृत्ति 'मैं' नहीं हूँ तो चेतना में स्थिति बन जाती है। यानि चेतना जागृत हो जाती है।

११.) माया में तो सबकुछ मिथ्या है, तो क्या ज्ञान भी मिथ्या है?  
माया का ज्ञान यानि यह जानना के मैं माया नहीं हूँ, मैं साक्षी हूँ। अनुभवकर्ता या अनुभव का कभी ज्ञान नहीं होगा, बस चित्त की मान्यताओं का ही ज्ञान सम्भव है। जो की मिथ्या है, अज्ञान है, यानि सारा ज्ञान भी मिथ्या है। ज्ञान मार्ग पर ज्ञान नहीं होता है, अज्ञान का नाश होता है और समर्पण भाव आता है।

१२.) मूल प्रश्नों के सात भेद कौन से है?
1) क्या(पिछले अनुभव से नया अनुभव), 
2) कहाँ (देश), 
3) कब (समय), 
4) क्यों (कारण), 
5) कैसै (प्रक्रिया), 
6) कौन (व्यक्ति),
7) कितना (मात्रा या संख्या)


१३.)  ज्ञानमार्गी के क्या लक्षण है?
1) मुमुक्ष्त्व (मुक्ति की इच्छा)
2) वैराग्य (सांसारिक वस्तु में अरूचि)
3) विवेक (सत्यासत्य में भेद जानना)
4)षट् सम्पत्ति - शम(मन में शान्ति), दम(इन्द्रियों पर नियंत्रण), श्रद्धा(गुरू वचन पर विश्वास), समाधान(शक्तियों का उपयोग ना करना), उपरति(संसार को ना बदलने की इच्छा), तितिक्षा(ज्ञानमार्ग पर उत्तरोत्तर चलते रहने की शक्ति)
 
ज्ञानमार्गी के अतिरिक्त गुण:-
रूचि, जिज्ञासा, बुद्धि, पूर्वाग्रहमुक्त, समालोचनात्मक, तार्किक, धैर्य और ध्र्द्डता, प्रयोगकर्ता, ज्ञानदानी, अविवादी, ग्रहण मुद्रा, समर्पण, आलोचना को सहन करने की क्षमता, दैनिक कार्यों में अतिवादी ना होना, अतिसूक्ष्मवादी (जितना आवश्यक हो उतना ही करना), गुरूभाविता (भविष्य के शिक्षक)

१४.) सत्य क्या है और यह क्यों आवश्यक है?
सत्य  अनुभवों का एक वर्गीकरण है। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही तरह के अनुभवों को सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृतया जा सकता है। सत्य एक संचारी कथन है और सत्य मनुष्य के ज्ञान को दर्शाता है।
 
बचपन से ही हमें जो भी बाहरी माध्यमों से सिखाया जाता है उसीको हम सत्य मान लेते है। यह सब बातें उत्तरजीविता के लिए आवश्यक हो सकती है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर वह सत्य नहीं है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए सत्य का ज्ञान अत्यावश्यक है। आध्यात्म में स्वयं का अनुभव ही सत्य है। 
 
१५.) सत्य का क्या आधार है? सत्य के मानदंड क्या है?

सत्य व्यक्तिनिष्ठ और स्वेछित होता है। हर एक प्राणी की सत्य कि व्याख्या अलग होती है और  आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को किसी भी अन्य व्यक्ति के सामने सत्य की सत्यापन करने से बचना चाहिए। 
 
सत्य के गलत मानदंड- पुस्तक (जो लिख दिया गया है), समाज (जनता का बहुमत), सूचना सम्प्रेषण के माध्यम, माता - पिता, शिक्षक (जो ज्ञानी नही है),  पाठशालाऐं, मित्र, समाज में सम्मानित व्यक्ति, धनी, सुशिक्षित या सुन्दर दिखने वाला व्यक्ति
 
सत्य के उचित/सही मानदंड - स्वयं का अनुभव, तार्किक, पुनरावृति, सर्वव्यापक, अपरिवर्तित, स्वतः प्रमाणित, अवैयक्तिक,  गुरू वचन, गणितीय, प्रायोगिक 


१६.) सत्य के सन्दर्भ क्या है?

सत्य के सन्दर्भ निम्नलिखित है:-
  • जाग्रत अवस्था का सत्य, जो सर्व सम्मति से सत्य हो।
  • विज्ञान के द्वारा प्रमाणित,
  • मानसिक सत्य(व्यक्तिनिष्ठ),
  • स्वप्न का सत्य(व्यक्तिनिष्ठ, अस्थायी सत्य),
  • मृत्यु के बाद का सत्य (महामाया),
  • आध्यात्मिक अनुभवों के सत्य।
१७.) अनुभव के कितने प्रकार है और कौन कौन से है?
अनुभवों के तीन प्रकार है:
1) वस्तु या जगत (चराचर)
2) शरीर (भौतिक या मानसिक)
3) मानसिक (चित्त की वृतियाँ)

१८.) काल, अनुभवकर्ता में है या अनुभवकर्ता, काल में है?
अनुभवकर्ता समय से परे है। 
भूतकाल का अनुभव स्मृति के द्वारा वर्तमान में ही होता है। भविष्य भी वर्तमान कि गई परिकल्पना मात्र है। समय एक अवधारणा है, मनोवृत्ति है, विचार मात्र है। अहम् जब चित्त पर स्थित होता है, तो समय की अवधारणा सत्य प्रतीत होती है। परन्तु अहम् जब अनुभवकर्ता में स्थित होता है तब वह समय के परे होता है। मैं को आत्मन् में स्थित करना ही ज्ञानमार्ग की साधना है।

१९.) अनुभवकर्ता का स्थान कहाँ है?
अनुभवकर्ता अलौकिक है। 
स्थान या लोक मनोनिर्मित है, सिर्फ अवधारण है। अनुभवकर्ता का अनुभव शरीर में होना सिर्फ इन्द्रियों के कारण होता है, परन्तु यह अज्ञान है। अनुभवकर्ता का कोई स्थान नहीं है, वह सर्वव्यापी है। 

२०.) क्या ज्ञान होने के बाद भी शिष्य को गुरु की आवश्यकता होती है? 
जब आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान हो जाता है तो यह भी समझ आ जाता है कि, जो ज्ञान लेने वाला है वही ज्ञान देने वाला भी है, गुरु और शिष्य एक ही हैं उनमें कोई भेद नहीं है। सभी विभाजन या सीमायें सापेक्षिक स्तर पर ही प्रतीत होती हैं। गुरु घड़े की काल्पनिक सीमायें तोड़ देते हैं। घड़े के अंदर और बाहर का आकाश तो पहले से एक और सम्पूर्ण ही है। केवल मिथ्या या अज्ञान नष्ट होता है कि मैं घड़े के अंदर भिन्न आकाश हूँ। गुरु और शिष्य में, जब तक अज्ञान है तभी तक भेद प्रतीत होता है, उसके बाद कोई भेद नहीं है।

२१.) ज्ञानमार्ग पर मंत्र का क्या महत्व है? 

मुख से बोला हुआ मंत्र केवल स्मरण दिलाने के लिए उपयोगी है। मंत्र संकल्प द्वारा धारण किया जाता है, उससे नाद, जगत आदि पर प्रभाव पड़ता है, या नाद बदलने लगता है। स्वयं का मंत्र बना लें, वो सबसे अधिक प्रभावशाली होगा।आत्मज्ञान होने के बाद अहिंसा में स्थिति स्वाभाविक रूप से ही हो जाती है। ज्ञान मार्गी को वो करना है जो उसे पसंद है और जो गुरु ने बताया है।


२२.) मानवीय संबंधों से मिलने वाले दुःख से कैसे बचा जाये ?
सम्बंध यदि दुख पैदा कर रहे हैं तो उनके पीछे क्यों पड़े हैं। मनुष्य जन्म सम्बंध बनाने के लिए नहीं लिया है। सम्बंध छोड़ दें या उनको स्वीकार कर लें, प्रेम भाव बढ़ायें। प्रेम भाव होगा तो सम्बंध अपने आप सुधर जायेंगे। जो सम्बंध प्रेम से नहीं सुधरते हैं तो उनको छोड़ देना ज्यादा अच्छा है, या वो आपको छोड़ देंगे। मेरे जीवन में आने वाले सभी दुख का जिम्मेदार मैं ही हूँ, कोई अशुद्धि है। और इनका निवारण भी मैं स्वयं ही कर सकता हूँ, कोई और नहीं। बुद्धिमान साधक के लिए सही सम्बन्धों की पहचान करना कौनसी बड़ी बात है। मृत्यु से सारे बंधन वैसे भी टूट ही जाते हैं।

२३.) अध्यात्म क्या है और मनुष्य जीवन इसके लिए क्यों उपयोगी है ?
अध्यात्म की साधना के लिए मनुष्य जीवन कीमती है। ज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि हम मनुष्य से कुछ और हो जाते हैं, ज्ञान का अर्थ यह है कि हम मनुष्यता के पार हो जाते हैं। मनुष्यता का त्याग अध्यात्म नहीं है, उससे परे हो जाना अध्यात्म है। जीवन व्यर्थ मत करें, जीवन वासना पूर्ति के लिए नहीं है, ज्ञान के लिये है, आनंद के लिए है, विकास के लिये है, मुक्ति के लिए है।

२४.) ज्ञानमार्ग क्या है ? इसका लक्ष्य क्या है ?
ज्ञान मार्ग का लक्ष्य अज्ञान का नाश है, मुक्त तो आप पहले से ही हैं। यह अज्ञान भी दूर हो जाता है कि मैं बंधन में हूँ। यही मुक्ति का मार्ग है।  ज्ञान मार्ग पर ज्ञान नहीं होता है, अज्ञान का नाश होता है और समर्पण भाव आता है। ज्ञान मार्ग का लक्ष्य है अस्तित्व, स्वयं, सत्य असत्य, मुक्ति कैसे मिले, मेरा स्वभाव क्या है, अद्वैत क्यों कहा गया है आदि का ज्ञान प्राप्त करना।आध्यात्म का लक्ष्य जीवन को सुखी करना नहीं है, पर जीवन से ही मुक्ति हो जाना है। 

२५.) ज्ञानमार्ग पर चलने के क्या फल आते है? 
ज्ञान मार्ग का फल है आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, कर्म बंधन/दुखों से मुक्ति, अनावश्यक कर्म छूट जाते हैं, चेतना बढ़ जाती है आदि।ज्ञान की सम्पूर्णता ही अज्ञेयता है। अज्ञान का नाश होने पर यहां सभी प्रश्न समाप्त हो जाते हैं और समर्पण भाव आ जाता है। यहां ज्ञान की इच्छा भी नहीं रहती है, और ज्ञान से भी मुक्ति हो जाती है। ज्ञान भी अज्ञान का प्रतिबिम्ब है, जहां अज्ञान है वहां ज्ञान आता है, अद्वैत में ज्ञान नहीं है अज्ञेयता है। अज्ञेयता अंतिम चरण है।

२६.) ज्ञान का क्या अर्थ है? इसका सृजन कहाँ और कैसे होता है?
ज्ञान की परिभाषा नकारात्मक है, जब अज्ञान का नाश हो जाता है तो उसको ज्ञान कहा गया है। ज्ञान है, यह देखना कि जो भी अनुभवों में सम्बंध बनाये हैं सब अज्ञान के कारण हैं, बेकार हैं। अन्त में कोई ज्ञान नहीं मिलेगा। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता है, तब पुस्तक पढ़ने से केवल अज्ञान ही होता है।  जीवन तो छोटा सा है, किताबें पढ़ने में बिताना है या ज्ञान में बिताना है। अपनी गीता स्वयं लिखें। ज्ञान मार्ग पर नकारात्मक ज्ञान ही मिलता है, यानि जो भी मान्यतायें हैं वो नष्ट हो जाती हैं, उसके बाद जो बच जाता है उसको ज्ञान कहते हैं।  ज्ञान का अर्थ है अनुभवों का संयोजन। ज्ञान का सृजन संस्कारों के रूप में चित में होता है। ज्ञान का सृजन चित से ही होता है क्योंकि यह एक चित की वृत्ति है जो बार बार होती रहती है।

२७.) ज्ञानमार्गी का जीवन कैसा होता है?
जो व्यक्ति ज्ञान मार्ग पर चलता है उसका सारा जीवन ज्ञान अर्जन मे ही व्यतीत होता है और एक बार जिसको ज्ञान हो जाए वह कोशिश करते है कि दुसरों तक भी वह ज्ञान पहुंचे। ज्ञानमार्ग एक जीवन-शैली है।

२८.) ज्ञान का संयोजन क्यों आवश्यक है? इसका क्या महत्व है और इसका तत्त्व क्या है?
ज्ञान का संयोजन होने पर चीजो के बीच कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। जैसे प्रत्येक शब्द के साथ कोई रूप या कोई और जानकारी जुड़ी रहती है जो हमें उस चीज को समझने में सहयोग करता है। सभीं चीजों का व्यवस्थितकरण ही ज्ञान है। ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और ज्ञान पर ही सारा संसार आधारित है। जीवन की सभी चीजों का उद्गम ज्ञान से ही होता है। सिर्फ ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं है। ज्ञान का तत्व अपरोक्ष अनुभव है।

२९.) ज्ञान के साधन क्या है?
अपरोक्ष अनुभव, तर्क, गुरू और पुस्तक ज्ञान के साधन है। सम्पूर्ण ज्ञान अपरोक्ष अनुभव और तर्क के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। जानकारी और ज्ञान में भेद जानना बहुत महत्वपूर्ण है। शब्दों का अर्थ तभी होता है जब उसके पीछे उसका अपरोक्ष अनुभव भी प्रकट है।

३०.)  अज्ञान क्या है? इसका स्त्रोत क्या है ?
जो परोक्ष है और अवधारणाऐं है, वह ही अज्ञान है। अपरोक्ष अनुभव का अभाव ही अज्ञान है। अज्ञान एक चित वृति है जो संस्कारो, मान्यताओं और भौतिक जगत से आता है। ज्ञान का अभाव अज्ञान है। अन्त में, 'आप क्या हैं' वो होना जरूरी है, जानना जरूरी नहीं है। अभी आपने अपने आप को कुछ और मान रखा है, इस अज्ञान का हटना जरूरी है। जब अपने सही स्वरूप को पहचान लिया तो उसके बाद शब्दों के पीछे भागते रहने का कुछ अर्थ नहीं है, फिर ज्ञान को भी त्यागा जा सकता है। जैसे नदी पार करने के बाद नाव को छोड़ देना चाहिए। 

३१.) पंचवृत्ति कौन - कौन सी है?
1) प्रमाण 
2) विपर्यय
3) विकल्प 
4) निद्रा 
5) स्मृति
 

३२.)  प्रमाण क्या है और इसके क्या भेद है?
प्रमाण ज्ञान अर्जन का माध्यम है। प्रमाण से अज्ञान का नाश होता है, ज्ञान नहीं मिलता है। प्रमाण नकारात्मक ज्ञान देते हैं, यानि उससे कुछ अज्ञान नष्ट होता है। 
प्रमाण के निम्नलिखित भेद है:
1.) अपरोक्ष अनुभव,
2.) तार्किक ज्ञान (अनुमान)
3.) उपमान(किसी ओर चीज की उपमा) ,
4.) शब्द/आगम,
5.) अर्थापत्ति(एक बात के होने पर दूसरी सिद्ध हो जाती है),
6.) अनुपलब्धि प्रमाण के भेद है। 

३३.) ज्ञान मार्ग पर चलने के लिए क्या प्रयास करना पड़ता है?
ज्ञान मार्ग पर शुरू में लगता है कि समय देना पड़ेगा पर इसमें कुछ अधिक समय नहीं लगता है। अनुभव, अनुभवकर्ता, चेतना तो अभी है, यहीं है। अध्यात्मिक कार्य निजी कार्य है, अज्ञानी इसको नहीं समझते हैं। जिसको जो चाहिये वो उसे दे दो और बचे हुऐ समय में जो आपको अच्छा लगे वो करें। जीवन में अनावश्यक कर्मों को हटा दें, न्युन्तावादी हो जायें।
 
३४.) ज्ञानमार्ग पर अशुद्धियाँ कैसे दूर होती है ? 
ज्ञान मार्ग में बहुत जल्दी अशुद्धियों से मुक्ति पाई जा सकती है या सारी वासनायें पूरी की जा सकती हैं। बुद्धिमान साधक के लिए सही सम्बन्धों की पहचान करना कौनसी बड़ी बात है। अज्ञानी के लिए माया, सत्य आदि सब बराबर है, जैसे अनपढ़ के लिए सभी भाषायें एक जैसी हैं। अज्ञान है तो व्यक्ति प्रयास करेगा अंतर्शुद्धि का, और जब ज्ञान होगा तो परतें स्वयं शुद्ध होने लगेंगी। जो नशा करते हैं, व्यभचारी आदि है, उनको अंतर्शुद्धि की अधिक आवश्यकता है।

३६.) क्या ज्ञानमार्ग पर भाषा की शुद्धि आवश्यक है?
भाषा शुद्ध ना हो तो ज्ञान का संचारण नहीं हो पाता है। बुद्धि भाषा पर बहुत निर्भर है। भाषा शुद्धि से वाक् शुद्धि होती है, यानि आप जो भी कहेंगे वो सत्य ही होगा। अन्त में भाषा को भी छोड़ दिया जाता है क्योंकि सत्य को भाषा में सीमित नहीं किया जा सकता है। अज्ञान शब्दों की खिचड़ी है। शुद्धि होने से अज्ञान का नाश होने लगता है, उसके बाद केवल मौन, सन्नाटा बचता है। पूर्णता, शून्यता आदि भी केवल शब्द मात्र हैं, अज्ञान और ज्ञान दोनों मल हैं, दोनों के परे निर्मलता है, समर्पण भाव है। यदि अज्ञान है, बुद्धि में अशुद्धि है, तो वो गलत तर्क या कुतर्क पैदा करेगी। अज्ञान से विज्ञान अच्छा, विज्ञान से ज्ञान अच्छा और ज्ञान से अज्ञेयता अच्छी।
 

३७.)  ज्ञानमार्गी का जीवन कैसा होता है ?

जीवन छोटा सा है, उसमें वो करना चाहिए जो मुझे पसंद है ना की वह जो किसी और को पसंद है। जिस काम में रुचि नहीं है वह करने के लिए हम यहां नहीं आये हैं। जिस काम में रुचि है वही जीवन का लक्ष्य भी है। पैसा कमाना उदेश्य है और पढ़ाई मेडिकल की कर रहे हैं। जिज्ञासु जानना चाहता है और मुमुक्षु को मुक्ति की अभिलाषा होती है। ज्ञान मार्ग में दोनों आवश्यक हैं। ज्ञान मार्ग पर जिज्ञासा से शुरुआत करते हैं और बाद में जिज्ञासा का भी अन्त हो जाता है।

३८.) अज्ञान क्या है और इससे मुक्ति कैसे मिलेगी?
अज्ञानम मलम, ज्ञानम मलम, दोनों ही मैल हैं। ज्ञान भी अज्ञान ही है। जीव को ज्ञान नहीं हो सकता है। नाम रुप तो अज्ञान है, भ्रम हैं, प्रतीत होते हैं, चित्त निर्मित है। यदि अज्ञान को ही ज्ञान मान लिया है, तो अब अज्ञान से मुक्ति कैसे मिलेगी। ज्ञान के अभाव, या अज्ञान में जो भी किया जाता है वो सब बेकार है। सभी दुखों का कारण अज्ञान है, और कोई कारण नहीं है दुख का। अज्ञान दुख का कारण है। अहम एक वृत्ति मात्र है जो शरीर को बनाये रखने के लिए उपयोगी है। अज्ञान के कारण यदि अस्वस्थ अहम बढ़ जाये तो वो भी दुख पैदा करता है। जो शासन करना चाहता है वो मनोरीगी है। अज्ञान, आग की तरह है जो स्वयं भी जलती है और दूसरों को भी जलाती है। 

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