मुक्ति वह है जहां कोई कर्ता नहीं है। जीव की अवस्था अभी भी यही है। जब व्यक्ति ही नहीं है, तो लीला भी नहीं है। ना मुक्ति है ना बंधन है, ना संसार शुरू हुआ है ना समाप्त होगा। जो यह जान गया, ना उसका कर्म है ना कोई कर्म बंधन है। मुक्ति का अर्थ है कि जो भी है, मैं उसमें संतुष्ट हूँ, ना कि जो मन में है वही करूं।
जब पीड़ा मिलती है तो अध्यात्म में रुचि होती है। प्राकृतिक रुप से धीरे धीरे आसक्ति छूटती है और प्रगति होती है। केवल विरक्ति या अनासक्ति से ही पूर्ण मुक्ति सम्भव है।
ज्ञानमार्ग मुक्ति का मार्ग है। जीवन व्यर्थ मत करें, जीवन वासना पूर्ति के लिए नहीं है, ज्ञान के लिये है, आनंद के लिए है, विकास के लिये है, मुक्ति के लिए है।
मेरे कोई कर्म नहीं हैं, मैं तो पहले से ही जीव और कर्मों का साक्षी हूँ। जीव की मुक्ति सम्भव नहीं है, जीव का विलय सम्भव है। मैं तो पहले से ही मुक्त हूँ, और अज्ञान के कारण जो बंधन में प्रतीत होता है, वो मुक्त हो ही नहीं सकता है। जो वृत्तियां दुख या सुख का कारण हैं वही काल्पनिक बंधन है, जो अज्ञान के नाश से दूर हो जाता है। चेतना के प्रकाश में बंधन टूट जाते हैं। चेतना से अशुद्धि प्रकाषित हो जायेंगी, और अशुद्धि के कारण होने वाले कर्म रूक जायेंगे। इस शुद्धिकरण के कारण दुख से मुक्ति होगी। अज्ञान से मुक्ति ही मुक्ति है, और इसका फल है सुख शांति और समृद्धि।
अद्वैत के स्तर पर ना अनुभव है ना अनुभवकर्ता है, बस अनुभवक्रिया ही है। अनुभवक्रिया का भी तत्व शून्य है। तो किसका जन्म या मृत्यु हो रहा है। मुक्ति की इच्छा भी माया का भाग है।
जब अज्ञान नहीं है तो वही मुक्ति है, अज्ञान है तो मुक्ति सम्भव नहीं है। बंधन माया है, और मुक्ति पहले से ही है, तो बचा क्या? बंधन का विरोधात्मक शब्द मुक्ति नहीं है, बल्कि अज्ञान है। बस मुक्ति ही है। ज्ञान नहीं होगा तो मुक्ति नहीं होगी। ज्ञान हो गया तो बंधन नहीं होगा। जब बंधन चित्त निर्मित हैं, माया है, तो मुक्ति भी माया है।
यह चित्त पागल भूत की तरह भागता है। तुम पहले से ही परम मुक्त हो। बस इतना जानकर सुखी हो जाइये और क्या करना चाहते हो? बंदर की तरह अध्यात्म में दूसरों की देखा देखी कुछ ना करें।
जब यह भी नहीं पता की मुक्ति क्या है, तो मुक्ति मिलेगी कैसे? रचनायें तो हमेशा बंधी रहेंगी, मैं नहीं। मैं तो सदा नित्य मुक्त हूँ, एक बार यह देख लें, फिर उस ज्ञान से नीचे मत आइये। गरम तवे को कितनी बार छूना पड़ेगा, यह जानने के लिए कि वो गरम है? आत्मज्ञान कितनी बार लेना चाहते हो?
समयहीनता कहती है कि मुक्ति पहले ही हो चुकी है। और शून्यता कहती है कि जो भी है, वो था ही नहीं कभी। मैं बंधन में नहीं हूँ, मैं सर्वदा मुक्त ही हूँ। मुक्ति शब्द अनुभवकर्ता के लिए उपयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि अनुभवकर्ता तो सर्वदा मुक्त ही है। जब तक अज्ञान है तब भी बंधन होता नहीं है, केवल प्रतीत होता है।
जो भी प्रतीत हो रहा है वह स्वप्न मात्र है, मैं कहीं है ही नहीं, यही परम मुक्ति है। ज्ञानी पहले से ही मुक्त है, आत्मज्ञान होते ही वह यह जान लेता है।
मुक्ति का अर्थ है बंधन का नाश। जीव का विलय होने को सबसे बड़ी मुक्ति कहा गया है। उससे पहले छोटे छोटे बंधनों से मुक्त होना एक तरह की मुक्ति है, जैसे गरीबी से मुक्ति, भावनाओं पर नियंत्रण, चेतना में रहना आदि। अलग अलग मार्गों पर मुक्ति की परिभाषा भिन्न है, आपको जैसी मुक्ति चाहिये वो ले लीजिये, पर किसी और की मुक्ति की परिभाषा का आंख बंद कर अनुसरण ना करें।
आप जिस स्तर पर हैं आपको उसी तरह की मुक्ति दिखाई देगी, और वैसे ही ज्ञान समझ आयेगा। आत्मज्ञान होते ही मुक्ति हो जाती है, फिर और किसी अन्य मुक्ति की इच्छा नहीं रहती है। पर इसको आत्मसात करने में कुछ समय लग सकता है। आत्मज्ञान ही सबसे बड़ी मुक्ति है, उसके बाद दूसरे स्तर से मुक्ति अपने आप होने लगती हैं।जब यह जान लिया जाता है सब मैं हुँ या मैं कुछ नहीं हुँ वही मुक्ति है। आत्मन के सिवा, अन्य किसी भी अनुभव में आसक्ति ही बन्धन है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें