ज्ञानी और अज्ञानी में केवल एक ही अन्तर है, एक में चेतना है और एक चेतना में नहीं है। अज्ञान से लड़ाई नहीं करनी है, बस चेतना से दोस्ती कर लेनी चाहिए। जो भी होना हो वो हो, बस वह सम्पूर्ण चेतना में हो। अज्ञान, वृत्ति, अहंकार, कर्ता भाव आदि यदि चेतना के अंदर ही है तो उनके होने से क्या अन्तर पड़ता है, उनको वैसा ही रहने दें। अज्ञानी अपने ही चित्त के बनाये हुए छोटे से पिंजरे में बंद हैं।
ज्ञानी किसीको अपने उपर हावी नहीं होने देता है, चालाक भी होता है, ऐसा नहीं है कि वो पायदान बन जाता है, अहम को भी बनाये रखता है आदि, और साथ ही मित्रता, प्रेम से भरा हुआ होता है। परिवर्तन के लिए साधक को तैयार रहना चाहिये। प्रगति का अर्थ ही परिवर्तन है। घटनाओं से आसक्ति नहीं रहनी चाहिये।
जब जीवन घेर लेता है, तो ज्ञानी आम आदमी की तरह ही व्यवहार करता है, लेकिन उतना ही करता है जितना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञानी में पागलपन नहीं होता है, जब घटना हो जाती है और शांति हो जाती है, तो ज्ञानी वापस ज्ञान में स्थापित हो जाता है। वह देख सकता है कि यह सब मिथ्या है, उसके चित्त पर कर्म के गहरे निशान नहीं बनते हैं।
मनुष्य रुप से उपर उठकर अपने नियम स्वयं बनाये जा सकते हैं या माया के नियमों को टाला जा सकता है। माया में सब सम्भव है, लेकिन जिसके पास यह सिद्धि है वह उनका उपयोग नहीं करता है। मिथ्या में कुछ बदल भी दिया तो भी वह मिथ्या ही रहेगी। अज्ञानी जानता नहीं है कि यह सब झूठ है, मिथ्या है, इसलिये उसको बदलना चाहता है। जब यह समझ आ जाता है कि कोई भी वासना या इच्छा मेरी नहीं है और जो भी अनुभव हैं सब मिथ्या हैं तो सारी भाग दौड़ समाप्त हो जाती है। अज्ञानी ही सिद्धियों के पीछे भागता है। ज्ञानी सबमें केवल पूर्णता का ही अनुभव करता है।
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