जो भी इच्छा है उसकी कल्पना को यदि टूटने नहीं दें, दृढ कर लें तो वह संकल्प है। इच्छा आती जाती है, संकल्प ठोस है। संकल्प यदि सही तरह से धारण किया है तो वही घटने लगता है। इच्छा के साथ कल्पना भी आती है कि यह कैसे पूरी होगी।
साधक में यदि ज्ञान और गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण है, तो उसके संकल्प में गुरु कृपा या गुरु का संकल्प जुड़ जाता है, और वह सिद्ध होने लगते हैं, क्योंकि चित्त एक ही है। चित्त में सभी विभाजन कल्पना मात्र हैं।
ज्ञान मार्ग पर संकल्प का पूरा होना चमत्कार नहीं है, यह विज्ञान है। यदि यह ज्ञान है कि, जहां वासना पैदा होती है वहीं उसका पूरा होने का साधन भी पैदा होता है, तो हर वासना वहीं की वहीं पूरी हो जायेगी जहां वह उठ रही है। देव योनि में तो ये होता है, लेकिन मनुष्य में भी यह करने की सम्भावना और योग्यता है|
गुरु के द्वारा दिये गया संकल्प अत्यंत शक्तिशाली होता है। ऐसा संकल्प चित्त की हर परत में रिस जाता है, और उसके द्वारा सब कुछ सिद्ध होने लगता है। इस संकल्प को जीवंत कर दें, जैसे उसमें प्राण प्रतिष्ठा हो गई हो।
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