ज्ञान होने के बाद, बाकी संसार में जो अज्ञान है उसको दूर करना हमारा कर्म है, क्योंकि मैं ही तो अस्तित्व का सम्पूर्ण विस्तार हूँ। जहां अंधकार बचा हुआ है वहां दीया जलाना है। यहां संतुष्टि नहीं होनी चाहिए, पर गुरुक्षेत्र को समर्पण होना चाहिए। गुरुक्षेत्र के लिए उपयोगी बन जायें, एक उपकरण बन जायें। गुरुक्षेत्र से जो मिला है उसको बांटने का एक माध्यम बन जायें।
इससे जीवन में खुशी हो ना हो, संतुष्टि होगी की जीवन अर्थपूर्ण है, व्यर्थ नहीं गया। जो जानना था वो तो जान लिया है, अब या तो प्रयोग करते हैं या अंधकार दूर करते हैं।
अध्यात्म की साधना के लिए मनुष्य जीवन कीमती है। ज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि हम मनुष्य से कुछ और हो जाते हैं, ज्ञान का अर्थ यह है कि हम मनुष्यता के पार हो जाते हैं। मनुष्यता का त्याग अध्यात्म नहीं है, उससे परे हो जाना अध्यात्म है।
अध्यात्म मार्ग पर आने के बाद भी जीवन में संघर्ष रहता है क्योंकि पुराने कर्मों का फल तो आयेगा ही। लेकिन जो भी होगा वो प्रकाश में होता है। अपने जीवन में आने वाले संघर्ष को पूरे समर्पण भाव से स्वीकार करना चाहिए। जैसे जब पुराना इकठ्ठा किया हुआ इंधन जब समाप्त हो जाता है तो अग्नि अपने आप बुझ जाती है।
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