१७.) चेतना क्या है?

चेतना का अर्थ है दृष्टा या अनुभवकर्ता का ज्ञान। चेतना वह है जब दृष्टिकोण अनुभव से हटकर अनुभवकर्ता का हो जाये। फिर कोई भी विचार हो उससे अन्तर नहीं पड़ता है। हर अनुभव अनुभवकर्ता का ही दर्शन है। अनुभव का दृष्टा कौन है, वही चेतना है, बस दृष्टा या साक्षी भाव में रहना चेतना का होना है। चेतना आवश्यक नहीं है, ज्ञान आवश्यक है। दृश्य दृष्टा में भेद जान लेना, आत्मज्ञान हो जाने से चेतना आ जाती है। जो पहले से ही सचेत है, जब मैं पहले से ही ब्रह्मं हूँ, उसका स्मरण कर लें बस, यही चेतना में स्थिति है। जब तक चेतना का अर्थ नहीं पता तब तक उसे बढ़ाने का प्रयास सफल नहीं हो सकता है।


यदि केवल मनन या विचारों से चेतना बनती है तो वो चेतना नहीं है। चेतना तो विचारों के अभाव में भी होती है। चेतना तब स्थिर होती है जब ज्ञान पक्का हो जाता है, जब आत्मज्ञान होने से बुद्धि शुद्ध हो गई हो। शुद्ध अशुद्ध विचारों की चेतना बनाये रखें। विचारों से चेतना नहीं आती है, विचारों की चेतना होती है। 
    
इस मशीन या पुतले से कर्म होते रहने दें, चैतन्य सर्वदा चैतन्य है, मैं पहले से ही मुक्त हूँ। मैं किसी योनि में नहीं हूँ, पहले से ही समयहीनता है। अज्ञान जड़ है दुख का, चेतना का अभाव नहीं। जो भी हुआ, जो हो रहा है या जो भी होगा, सभी मिथ्या है या माया है, यह जानना ही चेतना है। कोई भी कल्पना, विचार, घटनायें आदि, मानसिक या भौतिक जो भी हुआ है, उसको एक बार और पूरी चेतना के साथ मानस पटल पर दोहरायें। यह एक बहुत अच्छी विधि है मुक्ति की या चेतना बनाने की। यह संकल्प लें कि दोबारा यदि यह हो, तो मेरी चेतना बनी रहे। फिर दोबारा यदि वह घटना होती है तो उसके साथ ही चेतना भी आ जाती है। जैसे शक्कर की वासना के साथ दंड का स्मरण भी जुड़ जाता है। यही चित्त का स्वभाव है। जो चित्त को जान गया है वह उसमें फिर कुछ भी कर सकता है। जो मशीन को जान गया है वह उसमें बदलाव भी कर सकता है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

List of Questions asked in Path of knowledge program - Part 5

How to describe the oneness? When to read the books? Why does emptiness look empty? What is atma? Who should do the experiments and purifica...