चेतना में आने में कोई प्रयास नहीं लगता है, बस दृष्टा बनकर देखना मात्र है, साक्षी भाव में रहना। पर यह भी कोई प्रयास नहीं है, यह अज्ञान के नाश से स्वाभाविक होने लगेगा। साक्षी भाव में आना उदेश्य है, बाकी सब व्यर्थ है। केवल अज्ञान से बाहर आना है और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बाद तो बुद्धि भी विघ्न है। यदि चेतना जागृत है तो प्रतिक्रिया में फंसते नहीं हैं, और एक विशेष प्रकार की विरक्ति हो जाती है।
पतंजलि ने भी यही कहा है - बुद्धि शुद्ध हो जाती है तो साधक दृष्टा रुप में अवस्थित हो जाता है, नहीं तो विक्षेप विपर्य आदि चित्त में चलते रहते हैं। योग चित्त वृत्ति निरोध, तदा दृष्टा स्वरूपे अवस्थानम।
जब यह समझ आ गया कि कोई चाहने वाला ही नहीं है, तो चेतना जब चाहें या जब आवश्यक है, तब आ जाती है। चेतना लायी नहीं जाती है, मूल तत्व का ज्ञान होने पर चेतना अपने आप आती है। फिर धीरे धीरे, चित्त को उसका अमृत रुपी स्वाद अच्छा लगने लगता है। जब कर्ता ही नहीं है, तो चेतना में आने का प्रयास कौन करेगा? ज्ञान के लिए समर्पण और गुरु कृपा से ही चेतना में स्थिरता आती है। फिर जीवन में आनंद है और जीवन एक खेल हो जाता है।
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