९.) क्या अलग अलग अनुभवों के माध्यम से अस्तित्व पूर्णता की ओर जा रहा है?

अस्तित्व पूर्ण ही है, केवल अज्ञान के कारण अपूर्ण प्रतीत होता है। पूर्णता यानि वो अनुभव जिसमें से ना कुछ निकाला जा सकता है, ना ही कुछ जोड़ा जा सकता है। जैसे वृत्ताकार, फूल आदि पहले से ही पूर्ण है।

अस्तित्व सम्पूर्णता को ही कहते हैं, उसके बाहर कुछ और नहीं हो सकता है। अस्तित्व अनंत है, उसमें से कुछ भी निकाल दें या जोड़ दें, वह पूर्ण ही रहता है। एक ही चीज है जो पूर्णता लिये हुऐ है, वो है अस्तित्व, और वो मैं ही हूँ। केवल सुनकर नहीं मानना चाहिये, समझकर, मनन करके, प्रयोग करने के बाद ही यह मानना सही है।

आवश्यकता के नियम के अनुसार सब कुछ होना चाहिए, अस्तित्व को कुछ भी तिरस्कारित नहीं है। ज्ञानी हर अनुभव, हर घटना में पूर्णता ही देखता है, इसको कहते हैं सम्यक दृष्टि। आम व्यक्ति पसंद नापसंद के चश्मे से देखता है इसलिये उसको अपूर्णता दिखती है। नहीं तो जो जैसा है वैसा ही पूर्ण है। जैसे फूलों की जितनी देर आवश्यकता रहती है वो बस उतनी देर ही रहते हैं। इसी तरह सारी प्रक्रियाएं अपने आप में पूर्ण हैं, सुन्दर हैं और आवश्यक हैं।

मैं कोई शरीर, मन आदि नहीं हूँ, मैं ही ब्रह्मं हूँ, मैं पहले से ही पूर्ण हूँ। जैसे सभी कुछ आकाश में ही है, आकाश कहीं नहीं जाता है, वैसे ही सम्पूर्णता कहीं आती जाती नहीं है। सम्पूर्णता की अवस्था अभी और यहीं है, कुछ प्रयास नहीं करना है, उसमें आने के लिए। अद्वैत में ज्ञान अज्ञान दोनों नहीं हैं, केवल अज्ञेयता, ज्ञानहीनता, कारणहीनता आदि है। पूर्ण होने के लिए ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।

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