चित्त की वृत्ति को रोका नहीं जा सकता है, केवल मानव चित्त या जीव विलीन हो जाता है विश्वचित्त में। जैसे लहर विलीन हो जाती है सागर में, और वह फिर से सम्पूर्ण है, वैसे भी वह हमेशा पूर्ण सागर ही थी। जब अशुद्धि नष्ट हो जाती है तो चित्त माया जान पड़ता है। समाधि में भी यही ज्ञान होता है कि चित्त असत्य है और मेरा स्वरूप शून्यता है। फिर चित्त की वृत्ति होना या ना होना एक बराबर हो जाता है। फिर वृत्ति होते हुए भी नहीं होती है यही चित्त वृत्ति निरोध है।
इसलिए चित्त वृत्ति को रोकना सम्भव नहीं है पर उसके पार जाना सम्भव है, उसपर नियंत्रण सम्भव है। वियोग इसलिये है क्योंकि बुद्धि में अशुद्धि है, बाकी की परतों में अशुद्धि होते हुए भी वह पहले से ही योग या सम्पूर्णता में हैं, जैसे शरीर, अहम, भावनायें आदि। बुद्धि में अंधकार है तो वियोग प्रतीत होता है। बुद्धि में से अज्ञान या वियोग की वृत्ति हट गई तो योग पहले से ही है।
चित्त वृत्ति से चेतना नहीं आती है, चेतना से चित्त वृत्ति प्रकाशित होती है। चेतना पहले आती है, उस प्रकाश में चित्त वृत्तियां दिखाई देती हैं। जब चेतना आ जाये तो यह जान लें कि यह सही अवस्था है, इतना दोहरा लें मन में और अपना कार्य जारी रखें, बस इतना ही करना है।
चित्त की वृत्तियां रुक नहीं जाती हैं, चित्त वृत्तियों से अलग कुछ नहीं है, जैसे वस्त्र धागे से अलग कुछ नहीं है।
अनुभवक्रिया में अनुभवकर्ता और अनुभव विलीन हो गये हैं, उनमें भेद नहीं रहा। जैसे पानी में रंग, सिक्के के दो पहलू, सोने से बना गहना आदि। चित्त पूर्णता को विभाजित करके उसको नाम रुप दे देता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें